वर्षा का समय सम्प्राप्त है
कामदेव अपना लीला रच रहा है।
मन म्लान है,प्राण क्षितिज के पार है
लज्जा समीप में छिपी हुई है।
कामदेव अपना लीला रच रहा है।
मन म्लान है,प्राण क्षितिज के पार है
लज्जा समीप में छिपी हुई है।
तुम कामनियों में श्रेष्ठ हो
और यह वर्षा की रात है
भला हुआ कुदिवस चले गए
चन्द्रमा और कुमुद दोनों के दर्शन
अपने अलौकिक नेत्रों से हो गए।
कहाँ तुम बंग और मैं विशुद्ध मैथिल
आज अकस्मात् ही दोनों की आँखे मिल गई।
विधाता दक्षिण हो गया है
हृदय उद्वेलित हो रहा है
तुमसे मिलन की कामना जग रहा है।
कमल के जैसे शरीर कोमल है मेरा
चाह कर भी सबल होने में असमर्थ हूँ
विरह दुःख और सहन नहीं कर सकता।
वर्षा और चंद्ररात्रि शरीर को जला रहा है
अब भी तो तुम मेरा स्मरण करो ?
हृदय उद्वेलित हो रहा है
तुमसे मिलन की कामना जग रहा है।
कमल के जैसे शरीर कोमल है मेरा
चाह कर भी सबल होने में असमर्थ हूँ
विरह दुःख और सहन नहीं कर सकता।
वर्षा और चंद्ररात्रि शरीर को जला रहा है
अब भी तो तुम मेरा स्मरण करो ?
एक चन्द्रमा आकाश में है
दूसरे चन्द्रमा तुम्हारे माथे पर है।
चारो दिशा मैं तुम्हे ही देखता हूँ
किन्तु तुम्हारा परिजन परमिल की
तरह व्यवहार से दुर्वार है
तुमसे बात करने में भी मुझे
लोक लाज का भय होता है।
ज्येष्ठ की रात है
कामिनी कोमल आकृतिवाली है
दक्षिण पवन से पराभाव पाता हूँ
ये सभी तुम्हारे लिए ही सहता हूँ।
दूसरे चन्द्रमा तुम्हारे माथे पर है।
चारो दिशा मैं तुम्हे ही देखता हूँ
किन्तु तुम्हारा परिजन परमिल की
तरह व्यवहार से दुर्वार है
तुमसे बात करने में भी मुझे
लोक लाज का भय होता है।
ज्येष्ठ की रात है
कामिनी कोमल आकृतिवाली है
दक्षिण पवन से पराभाव पाता हूँ
ये सभी तुम्हारे लिए ही सहता हूँ।
कामिनी तुम्हारी कदम अलसाई है
शरीर की विभा-विंची अनियंत्रित है।
भ्रांतिपूर्ण बातें बोलती हो
कामदेव के मोह में खो गई हो
बार-बार जंभाई लेती हो
मुँह से सुगन्ध आती है
शायद मदिरा ग्रहण की हो।
चन्दन की लेप मुँह में पोती हो
जिससे पूर्णिमा का पूर्णचंद्र
अर्धखिलित हो गई है।
तुम तो वैसे ही सुंदरी और विदुषी हो
अपने उज्जवल नेत्रों को काजल से
मलिन क्यों कर लेती हो?
गोरे पुष्ट स्तन मातृत्व के कटोरे हैं
चन्दन से उजला मत करो उसे
पाले से सुमेरु ढक जाएगा।
शरीर की विभा-विंची अनियंत्रित है।
भ्रांतिपूर्ण बातें बोलती हो
कामदेव के मोह में खो गई हो
बार-बार जंभाई लेती हो
मुँह से सुगन्ध आती है
शायद मदिरा ग्रहण की हो।
चन्दन की लेप मुँह में पोती हो
जिससे पूर्णिमा का पूर्णचंद्र
अर्धखिलित हो गई है।
तुम तो वैसे ही सुंदरी और विदुषी हो
अपने उज्जवल नेत्रों को काजल से
मलिन क्यों कर लेती हो?
गोरे पुष्ट स्तन मातृत्व के कटोरे हैं
चन्दन से उजला मत करो उसे
पाले से सुमेरु ढक जाएगा।
तुम्हारा केश-पाश अस्त व्यस्त है
लज्जावश हास्य गुप्त है।
हे चन्द्रमा की तरह शीतल सखी
तुम क्यों यूं ही न न न करती हो।
मयूर का गर्जन सुनकर तुम खिली हो
वर्षा का समय सम्प्राप्त है
कामदेव अपना लीला रच रहा है।
लज्जावश हास्य गुप्त है।
हे चन्द्रमा की तरह शीतल सखी
तुम क्यों यूं ही न न न करती हो।
मयूर का गर्जन सुनकर तुम खिली हो
वर्षा का समय सम्प्राप्त है
कामदेव अपना लीला रच रहा है।
रिपुंजय कुमार ठाकुर
कविता-वर्षा की रात
-:रिपुंजय कुमार ठाकुर
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