बाल्यकाल के संग होली


बाल्यकाल की जब याद ह्रदय में
मधुर- मधुर-सी हो जाती है।
खिल उठता है रोम रोम मेरा
सुध-बुध सारी खो जाती है
बह जाता हूँ प्रेम रस में
और याद करने लगता हूँ
कितने सुखमय थे वे बाल्यकाल !
जब हम सब भींगे होते थे रंगो से
ऐसा लगता था हमने नहीं
रंगों ने हमसे खेली है
जैसे गोपियाँ कृष्ण से खेलती हैं।


महिपाल , श्याम ,अर्जुन ये
सबके सब थे नटखट लड़के।
सूरज के पहले ही रोशनी में
चल देते उठके हम तड़के।
विश्राम आम आदि का तो ज्ञान नहीं
माँ को कहते बाबू जी को मत बताना
हम आज पढ़ने नहीं बैठेंगे
आज सिर्फ रंगो में डूबेंगे।
था वो बचपना लोग हमसे होते परेशान
क्योंकि होलिका दहन के दिन ही
हम उनके सामान को चुरा लेते थे
और उस चोरी से प्रह्लाद को देखते थे अनवीरल।

लोग हमको विभिन्न नामों से बुलाते थे
कोई कहता था चोर तो कोई हलखोर
कोई तो किसी को चोरपुत्र भी कह देता था
लेकिन कोई न करता था परबाह।
हम दीवाने थे रंगो का
एक जगह सब एकत्रित होते
फेकते थे एक दूसरे पर रंग
यह रंग ही नहीं मंग भी था
ईष्या नहीं सिर्फ प्रेम ही था
झूम उठते थे हम सब एक साथ
जब भी संगीत बजता था।

होली के गीत और मालपुआ
दोनों ही मचलाता था हमको
और उनकी तो मत पूछो 
जो भांग ग्रहण करता था।
आज लगता है सपने से
बाल्यकाल के वे खेल हमारे
मधुमय बाल्यकाल के प्यारे दिन
आज न जाने कहाँ बिछड़े।
बाल्यकाल की जब याद ह्रदय में
मधुर-मधुर-सी हो जाती है।

                                                :- रिपुंजय कुमार ठाकुर 
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