दिवाकर की यह प्रथम बेला
लालिमा दिखती जैसे सलिल खेला
नवोदित,खिलित इस प्रकृति में
हम होते अल्पावधि के लिए बंधनों से हौला।
उगते रवि की इस बेला में
आनंद के नौका पर सवार
पता नहीं अभिनवगुप्त कब
चिरंतन चिंता में प्रवेश किया
ब्रह्माण्ड के एक प्राणी के नाते
चिंता मेरा अनवीरल बढ़ते गया
कैसे प्रकृति के साथ खिलवाड़ होता है
लोग कितने बड़े भक्षक हो गए है
क्या हम आ गए हैं पथ के किनारे
विषयों को गहराई से सोचते सोचते
मैं सहसा कमला नदी के तट पर ही
कुसुम लताओं के सुगंधों से परिपूर्ण हवा
उन लहराते कदम्ब,आम्र वृक्षो के मध्य
विशाल अरण्य में चिड़ियों से निवेदन किया
आप पहले जैसे चू चू चू क्यों नहीं करते
वन के मनोहर गीत अब क्यों नहीं गाते
झट ही चिड़िया बोली मुझसे
मानवों ने उजार दिया है संसार प्राणियों का
तुम्हारे कारण जातियां लुप्त हो रही है हमारी
फिर तेरे लिए मधुर वन गीत कैसे गाउँ
कुछ देर के लिए मैं स्तब्ध हो गया
अहसास हुआ आ गए हैं हम पथ के किनारे
मानव तेरा भला नहीं करेगा ईश्वर भी
चिड़ियों को देखते और सांत्वना देते हुए
मैंने कहा सहसा जैसे देवव्रत
रे चिड़ियाँ मैं ऋषि कुमार
विनती करता हूँ ईश्वर से
उगते रवि की उम्र तुम्हारी हो जाए।
कविता: दिवाकर की प्रथम बेला
कवि: रिपुंजय कुमार ठाकुर
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