मेरा भोला-मृदु मुसकान
दृढ यौवन के अंचल में
खिलता है जैसे कमलनयन मैं।
यह हँसी स्पन्द विलुप्त करती हैं
दुख और साधारण भ्रमों को
मिटा देती है संसारिक अज्ञानता
खोजती रहती है प्रसन्नता पटल पर
करती है यह मृदु मुझे ताजो-ताज
हो जाता हूँ अन्य कल्पना से अनजान
किञ्चित् नहीं रहता चिंताओं का ज्ञान
ऋषि कुमार सदृश मैं संस्कृत ग्रंथों में
लिलामयी कमलनयनी को रमते देखता हूँ
वाह! कितनी स्वच्छन्दता है उस प्रेम में
कमलनयनी को देख सीखते ही
मैं भी विचरण करता हूँ इस वन सघन में
सौंदर्य और कामाख्यानों से पूर्ण
पुराणों और काव्यों का पाठ स्मरण करते हुए
उज्जवलित करता हूँ स्वयं को यौवन की आभा से
यदा-कदा शाकुन्तलम्, मेघदूतम् का आनंद लेता हूँ
जब जब वसंतसेना देती है मुझको भेंट
निर्लज्जता से धैर्य बनाकर
उसकी कुटिया में जाकर
रासलीला करता हूँ चारुदत्त बनकर
मछली खाकर मछुआरिन के बाँहों में लिपटकर
भूल जाता हूँ जल्द ही सभी बंदिशों का सम्मान
उड़ जाता है बात यूहीं जैसे गगन में पंछी
छोड़ता नीरसता को भ्रमण करता मदिरा पीकर
यही कथा अपना है सच में ही यह पुराना है।
क्या रखा है नीरसता में
ब्रह्मचर्य को कौन पूछता है
आओ लो मजा सोम रस का
मछलीपान से यौवन चढ़ेगा
फिर गोपियाँ पूछेगी तुमको
तेरा फिर विहार खिलेगा
यौवन तेरा सार्थक होगा।
जब-जब मैं दीखता हूँ
खिलखिलाता रहता हूँ
कोलाहल से दूर कहीं
शांत विचरण करता हूँ
ठहक-मदक मुसकुराता हूँ
रमणीयता को बहलाता हूँ
फिर ऋषियों का गान गाता हूँ
कुमारों की अनिमेष नयन छवि
कामिनि चितवन चंचल यौवन से
कुछ पाठ स्वच्छंदतः सीखता हूँ
स्वतः ही मेरा मृदु मुसकान
मौन मुकुल अलि गुंज में
अस्फुट बुद-बुद कंदन में
मृतलोकी इस जम्बूद्वीप में
करता है मुझे दुखों से अनजान
जिसके प्रतिफल रहता हूँ मैं श्रृंगारित
फिरता रहता हूँ मैं सदा बहार
इस प्रेम विहार की वेला में ही
करता है मेरा कमलनयन नाना उत्पात
सौ स्वप्नों सी छविमान
कानों में भर सौ सौबात
हरियाली में करता हूँ मृदुगान
नित निरंतर भोर से शाम तक
जब भी होता है मुझको ध्यान
मृदुल हँसी को रोकने पर भी
भारती!नहीं रुकता यह निदान।
मेरा भोला-मृदु मुसकान
दृढ़ यौवन के अंचल में
खिलता है जैसे कमलनयन मैं।
कविता- मेरा मृदु मुसकान
कवि- रिपुंजय कुमार ठाकुर
29 जनवरी 2017
नई दिल्ली।
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