मैथिलि का मानिकीकरण

अवहट्ट, मिथिलापभ्रंश, तुरुतिआना, तुर्हुती नाम से जाने जाने वाले मिथिला के लोकवाणी के लिए मैथिली शब्द का प्रथम उल्लेख 1801 ई० में एक अंग्रेज विद्वान एच टी कोलब्रुक द्वारा किया गया | हिंदी एवं बंगला के अधीन गिने जारहे मैथिली को सर्वप्रथम सर जोर्ज अब्राह्म जो की एक समय मधुबनी का एस डी ओ० थे , अपने नेतृत्व में सर्कार द्वारा लगभग तिस वर्ष के अवधि में पूरा किए गए भारत के भाषा सर्वेक्षण आंकड़ा एवं शब्दकोष, व्याकरण, साहित्य और सांस्कृतिक स्वरुप के आधार पर एक स्वतत्रं भाषा घोषित करवा दिए |
                   पुनः मैथिली के क्षेत्र और स्वरुप भाषा विज्ञान का विवेचना करते हुवे उन्होंने तत्कालीन दरभंगा और भागलपुर जिला के उतरी भाग में जो की आज दरभंगा, मधुबनी एवं समस्तीपुर जिला के उतरी भाग जो सहरसा, सुपौल तथा पुर्णियां जिला का पूर्वी भाग है, वहां बली जाने वाली भाषा मानक मैथिली कहा जाता है | तत्कालीन दरभंगा जिला का दक्षिन भाग (वर्तमान समस्तीपुर जिला का दक्षिण भाग) मुंगेर और भागलपुर जिला का गंगा से उत्तर का भू भाग में उपयोग किये जनि वाली भाषा भी विशुद्ध भाषा मन जाती है और इसे दक्षिणी मानक मैथिली कहा जाता है |इसके अतिरिक्त पूर्णियां के पश्चमी क्षेत्र के भाषा को पूर्वी मैथिलि, मुजफ्फरपुर और चापरं का भाषा पशमी मथिली , गंगा के दक्षिणी, मुंगेर का पूर्वी, भागलपुर का दक्षिणी भाग और संथाल परगन्ना का उतरी और पशमी भाग में उपयोग की जाने वाली भाषा छिका छिकी तथा दरभंगा के मुशालमन भाई का भाषा जोलहा मैथिली नाम दिए |
                भाषा का स्वरुप प्रसंग कहा गया है कि चार कोष पर पानी बदलता है एवं आठ कोष पर भाषा | अर्थात किसी भी भाषा में आठ कोष पर उश्शरण में परिवर्तन होना अवश्यंभावी है | किसी भी भाषा के क्षेत्र में रहने वाले जनसमुदाय शिक्षित, अल्पशिक्षित एवं अशिक्षित सभी तरह के लोग रहते है | समय के अन्तराल पर घिस्से जाने के कारन, भाषा संतुलन और शेष बोलने के नियम से तो उच्चारण में अंतर तो होता ही है साथ ही एक ही समय में व्यक्ति अंतर तथा और भी अन्य कारन से उच्चारण में भिन्नता आ जाता है | अगर एक ही शब्द विद्यापति अनेक व्यक्ति के मुहँ से सुना जाये तो विद्यापति विदियापति, विद्यापैत, विदियापइत, विद्यापती सदृश्य उच्चारण तो सुना जा सकता है और भी अनेक रूप का उच्चारण सुना जा सकता है | भाषा में एतिहासिक, राजनितिक, भौगोलिक कारन तथा बोलने वाले के खान-पण, शारीरिक संरचना, जलवायु आदि के प्रभाव से भी भाषा में अंतर आ जाता है |
                 भाषा के परिवर्तन के लिए उपर्युक्त शास्वत घटक तत्व के कारन ग्रिअर्सन मोहदय को पश्चिम में गंडक से पूर्व मालदह तक, दक्षिण में मुंगेर, संस्थालपर्गन्ना से उतर में चंपारण तक उपयोग की जाने वाली मैथिली में छः उपभाषा या बोली तो मिलना स्वभाभिक ही था |
                 उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में मिथिला वा मैथिली में महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह के स्वैक्षा से सामाजिक, संस्क्रितिकेवं साहित्यिक उत्थान के लिए नवजागरण युग का सूत्रपात हुआ जो की बीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में आन्दोलन का रूप ले लिया | मैथिली शाहित्य में पूर्व प्रचलित पौराणिक व संस्कृत महाकाव्य के इर्द-गिर्द घूम रहे वर्ण-विषय एवं भाव का स्थान राजनितिक, सामाजिक, दार्शनिक एवं साहित्यिक विवेचन ने ले लिया | परंपरागत संस्कृत के विद्वान के साथ अंग्रेजी का शिक्षा प्राप्त करने वाले प्रथम पंक्ति के मैथिल भी मैथिली के कायाकल्प के लिए इस आन्दोलन में कूद पड़े |
        दरभंगा के अतिरिक्त, जयपुर-मथुरा, वाराणसी और कोलकाता आदि शहर में रहने वाले मैथिल मैथिली के लिए किसी भी तरह से उत्थान हेतु अग्रसर हुए | संभावित मैथिली का स्वरुप कैसा हो, मैथिली कैसे लिखी जाए, अआदी से सम्बंधित विषय पर भी लेख प्रकाशित होने लगी | जिस में म० म० उमेश मिश्र का मैथिली का उन्नति कैसे हो, प्रो० जयकांत मिश्र का साहित्य कैसा हो, पं० बलदेव मिश्र का मैथिली लिखिने का नियम, जीवनाथ राय का लेखन-शैली, उच्चारण नियम आदि प्रमुख लेख है| डा० सुभद्र झा द्वारा भी संस्कृत तथा हिंदी के स्वर से मैथिली में प्रयुक्त स्वर की विशेषता के आधार पर मैथिली में वर्तनी का प्रासंगिक लेख आया | ईधर सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रयास 1936 ई० में मुजफ्फरपुर के मैथिली साहित्य परिषद के अधिवेशन में किया गया | म० म० डा० उमेश मिश्र की अध्यक्षता में शैली निर्धारण हेतु एक समिति बनाया गया, जिसके संयोजक जीवनाथ राय हुए | उन्होंने मैथिली को मिथिलाक्षर में लिखने का आग्रह के साथ अन्य सुझाव दिए, जो की लोकप्रिय नही | म०म० डा ० उमेश मिश्र ने भी भाषा विज्ञान के आधार पर्मैथिली का एक ठोस शैली निर्धारित किये जिसको कुछ हद तक जन समर्थन मिला | अन्ततः 1942 ई०  के आस-पास रामनाथ बाबु द्वारा महावैयाकरण दीनबंधु झा और डा० सुभद्र झा जैसे भाषा शास्त्री के सहमती से एक थोश शैली का स्थापना किया गया | जिसे म० म० डा० उमेश मिश्र सहित अन्य व्यक्तियों का समर्थन प्राप्त हुआ | परन्तु प्रो० हरिमोहन झा, सीताराम झा, ज्यो० बलदेव मिश्र, मधुपजी, सुमनजी, भोला लाल दास जैसे ख्यातिप्राप्त जनप्रिय लेखेक लोग इस शैली से भिन्न स्वविवेकानुसार वर्तनी का प्रोयोग करते रहे |
                जीवित, जनप्रिय लोक भाषा की प्रकृति के अनुसार साहित्य विद्वान वतनी विषय के उहापोह एवं खिचातानी के बाद भी रत्न्पनी झा, भाना झा, हल्ली झा, चंदा झा, रघुनन्दन दास, जीवन झा उर्फ म० म० मुरलीधर झा, विन्ध्यानाथ झा, पं० रामचंद्र झा, पं० खुद्दी झा, पं० बबुआजी मिश्र, म० म० दीनबंधु झा, म० म० मुकुंद झा बख्शी, पं० बलदेव मिश्र, म० म० डा० उमेश मिश्र, डा० अमरनाथ झा, भोला लाल दस, कांची नाथ झा किरण, कुमार गंगानंद सिंह, डा० जयकांत मिश्र, प्रो० रमानाथ झा, भुवनेश्वर सिंह भुवन, इशनाथ झा, मधुपजी, प्ल्रो० हारिमोहन झा , तंत्रानाथ झा, सुमनजी, यात्रीजी, डा० सुभद्र झा, उपेन्द्र ठाकुर मोहन, गोविन्द झा, उपेन्द्र नाथ झा व्यास, अमर्ही, दुर्गा नाथ झा श्रीश, राज कमल चौधरी, मणिपद्म, सोमदेव, मार्कंडेय प्रवासी, प्रो० रामदेव झा , डा० सुरेश्वर झा, डा० भीमनाथ झा, डा० जयानंद मिश्र जैसे ओगों के अथक प्रयास एवं साहित्य-साधना दे मैथिली साहित्य का बहुचित्रित विद्या जगमगा उठा | परिणाम भी अमित हुवा | राम, तुलसी, जायसी, कृष्ण, राधा, सूरदास, पद्माकर के मातृभाषा में जहाँ अपने-अपने अस्मिता हिंदी में मिलाने से वर्तमान साहित्य का स्वरुप लावारिस हो गया | सीता, विदुयापति, गोविन्ददास का मातृभाषा मैथिलि, अपने सुदीर्घ साहित्य के परंपरा हिंदी को राष्ट्रभाषा पद पर आसीन मत देते हुवे अंतर्राष्ट्रीय व्यापकता के साथ  22.09.2003 को भारत के सविंधान में मैथिली भाषा को मान्यता परत किया गया | दरभंगा में रेडियो स्टेशन और मैथिली अकादमी की स्थापना तो पूर्व में ही हो गया था |
           मैथिली का वर्तमान साहित्य का स्वरुप जो उपरोक्त रूप से सृजित एवं स्थापित हुआ उसे ही आज मानक मैथिली मन जाता है |
    अब अनेक उत्साही विद्वान एवं विचारक मैथिली के इस मानक स्वरुप को वर्तमान सन्दर्भ में उपादेय नही मानते है | अशोक कुमार झा अविचल द्वारा अपने शोध-ल्प्रबंध के आधार पर्लिखी हुई पुस्तक मैथिली भाषाः सर्वेक्षण आ विश्लेषण में मैथिली के साहित्य का वर्तमान स्वरुप पर आक्षेप के प्रतिनिधि स्वर के रूप में दिख्रही है जो कि निम्न रूप से है (मैथिली से हिंदी में अनुवादित ) : -
            पूरी तरह से विश्लेषण से ये स्पष्ट है कि मैथिली साहित्य का मानक भाषा सर्वप्रचलित सर्वमान्य जो था वह अब आमजन की बोली नही रह गयी है | इसी कारन से इस पर सम्यक विश्लेषण कर के इसमें सभी भाषाओँ लो मिलाने की प्रवृति को जगाने का प्रयास किया जाना चाहिए, जिस से वैदिक सांस्कृतिक जनप्रोक्षता और आधुनिक सन्दर्भ में संस्कृत मात्र पंडितों की भाषा बने रह जाने जैसी स्थिति न उत्पन्न हो जाए |

        आगें वो अपना संवेद अधिक स्पष्ट करते हुवे वे कहते हैं : -
वर्तमान सम्मानित साहित्य का स्वरुप मिथिलांचल के संस्कृति तथा पारंपरिक भाषा के विकास में भुत ज्यादा उपादेयता सिद्ध करने में असमर्थ है | मानव मात्र का प्रवृति होता है कि वह जिस भाषा का उपयोग घर, जंगल, खेत और मैदान में करते है, जिस भाषा का प्रयोग अपने माता-पिता, भाई-बंधू एवं पति-पत्नी के साथ करते है उसमे उनको अपनत्व का बोध होता है |
     मैथिली का वर्तमान स्वरुप में मिथिला के पूर्वी, पशमी और दक्षिणी क्षेत्र के भाषा का विशिष्टता नही रहने का कारण, उनके हिशाब से इन क्षेत्रों के छात्र एवं छात्रा मैथिली को विषय के रूप में नही लेते हैं |
                   अपने उक्ति के समर्थन में वे मैथिली के लब्धप्रतिष्ठित विद्वन श्री वासुकिनाथ झा का मंतव्य भी उद्धृत किये है जो की निम्न प्रकार से है : -
                               एक तरफ कहते है की चार कड़ोर मैथिली भाषी हैं, परन्तु भाषा का स्वरुप रखे हुवे हैं मात्र पांच कोश के कुछ हजार लोगों का, उस पांच कोश का जन सामान्य लोगों का भी नहीं | फिर सभी के सहयोग की अपक्षा कैसे?
         श्री शक्तिधर झा मैथिलीक स्वरुप विधान नाम के अपने पुस्तक में क्षेत्र के पूर्वोत्तर में अंगिका एवं पश्चिम में बज्जिका के मैथिली से अतिरिक्त एक अलग स्वतंत्र भाषा के रूप में प्रतिष्टित करने के कुचक्र के प्रति सचेत करते हुवे मिथिली के साहित्यकार से उदार मंसिक्र की अपेक्षा किये है | मैथिल क्षेत्र में विघटन का स्वर सुन कर वे कहते है कि साहित्य माध्यम से व्यवहृत मैथिली के स्वरुप के विषय में प्रचलित अतिशुद्ध्तावादी दृष्टिकोण को छोड़ना आवश्यक जन पड़ता है | अधुनातन एकमात्र तथाकथित आदर्श भाषा शैली में रचना करने वाले मैथिली साहित्यकार लोग अपने कृति के माध्यम के रूप में पृक्त भाषा में यथा संभव विभिन्न अंचल के उन तत्वों को भी स्थान दें, जोकि स्वभाभिक रूपसे केन्द्रीय मैथिली में पूरी तरह से मिल जाए |
 उन्होंने आगें स्पष्ट रुपसे बोले हैं कि तथा कथित अंगिका, बज्जिका क्षेत्र एवं मैथिली के एनी उप भाषा क्षेत्र के जनसामान्य के मन में मैथिली के प्रति तब तक आत्मीयता की भावना जागृत नही होगा, जब तक, कि इस भाषा के प्रचलित रूप में उनको अपने क्षेत्रीय भाषा का गंध नही मिलेगा | उनको पूर्ण आशंका है कि मैथिली के वर्तमान साहित्य के स्वरुप में अगर आंचलिक स्वरुप का सन्निवेश हुवा तो विलियन एवं विघटन के दो छोड़ के बिच में  मैथिली के क्षेत्र में संप्रदाय वर्ग, जाती एवं जिला के नाम पर अनेक कल्पित भाषा स्वतंत्र अस्तित्व का प्रचार तेज होने लगेगा | भाषा विज्ञान एवं व्याकरण के आधार पर उनका मत है कि करल, धरल, तापत, कार, देखालका, सुनलका, देखलखनी, सुनलखनी, आदि का रूप अमैथिल या अशुद्ध नही है |
              भाषा विज्ञान पं० गोविन्द झा ग्रियर्सन द्वारा निर्मित मैथिली के उपभाषा में विभाजन से असहमत होते हुए एक तो छिका-छिकी और जुलहा भाषा के नामकरण पर आपत्ति जताए हैं दुसरे जिसे ग्रियर्सन ने जिसको मानक मैथिली कहे हैं उसको केन्द्रीय उप भाषा मन कर मैथिली साहित्य के भाषा को मानक मैथिली मने हैं | उन्होंने मैथिली के मानक-ग्रन्थ भाषा को किसी भी क्षेत्र की भाषा नहीं मानते हैं और कहते हैं जो चिरकाल से ग्रन्थ निबद्ध होने के कारन ये कुछ परम्पतागत स्वरुप धएँ किये हुए हैं | उनका मत ये भी है कि मानक मैथिलि(ग्रन्थ भाषा) में सभी औपभाषी के रूप का मूल पाया जाता है | पूर्व मैथिलि- अंगिका और पश्चिमी मैथिलि-बज्जिका से वर्तमान साहित्य की भाषा के भिन्नता का कुछ अंश में मात्र आघात मूल का कहते है जिसका उदहारण एस प्रकर दिए हैं : -
पूर्वी मैथिली         देखबो           देखी         जकरो                देखहो       
मानक मैथिली       देख व          दे खि         जक र               देख ह
पश्चिमी मैथिली      दे खव          दे ख        जे कर                दे खह
उप्ल्भाषा व मानक मैथिली के स्वरुप को स्पष्ट करते हुवे वे कहते हैं कि सभी उपभाषा मानक मौथोई से हटके है , सभी भाषा विज्ञान के दृष्टि से शुद्ध एवं पवित्र है | किसी भी भाषा को अशुद्ध , विकृत या भ्रष्ट कहना पुर्णतः अनैतिक एवं अवांक्षनिय है | अगर उपभाषा को भ्रष्ट कहा जाए तो केन्द्रीय उपभाषा भी भ्रष्ट कहलाएगा , कारन मानक मैथिली से ये भी भुत दूर है | वस्तुतः साहित्यिक भाषा में प्रयुक्त वाक्य हम नही जाएव या हम नहि जायव इस तरह से केन्द्रीय उपभाषा में भी नही बोली जाती है |
                                    मैथिली साहित्य के भाषा में सीमान्त आंचलिक स्वरुप के सन्निवेषक के साथ अशिक्षित एवं कृषिजीवी समुदाय की भाषा गत वैशिष्ट्य या शब्द के समावेशन की आग्रह भी हुई है |
                        मैथिल के साहित्यक मानक कैसी हो या इसका स्वरुप निर्माण पर निर्णय लेने से पूर्व भाषा के संदर्भ में कुछ भाषा वैज्ञानिक या काव्यशास्त्रियों से सिद्धांत के चर्चा की आवश्यकता है |
             किसी भाषा का किसी भी समय साहित्यिक भाषा उस समय में प्रचलित लोक भाषा से पूर्व की भाषा होती है | प्राकृत लोक भाषा रहते हुए साहित्य की भ्सः संस्कृत था | साहित्यक भाषा लोक भाषा पर लगाम कसे हुए रहते हैं | विभिन्न कारन से भाषा में जो परिवर्तन की प्रवृत होती है त्वरण कम करती है , अन्यथा कुछ ही दिन में भाषा का स्वरुप बसल जाएगी |किसी भी नदी के अस्तित्व हेतु जो महत्व उसके तट का है वही महत्व लोक भाषा हेतु साहित्यिक भाषा का है | उन्नसवीं शदी के अन्त में हिंदी की वर्तनी शैली विषय की अनेक प्रश्न नगरी प्रचारिणी सभा की उप समिति अनेकों विद्वान से सम्मति लेकर निर्णय लिया | भाषा के स्वरुप में समिति ने यही निर्णय लिया कि किसी भी भाषा के मानक स्वरुप का निर्धारण नही किया जा सकता है | लेखक के रूचि के अनुसार भाषा का रूप परिवर्तित होता रहता है | इसीलिए, मानक भाषा के स्वरुप निर्धारण हेतु कोई भी नियम निर्धारित नही हो सकता है
                      There can never be a fixed form of language. One language varies according to the subject matter and the taste of the writer. In the world of letters there are easy and difficult languages of writting. No hard and fast rules can be laid down for the standard of language’.
               नगरी लिपि एवं वर्तनी अनंत चौधरी, एक ही व्यक्ति ऐसे हैं जो वर्ण्य विषय के भेद से एक ही भाषा के अनेक रूप का प्रयोग करते हैं | दूसरी बात ये है की जो सभी प्रकार का रचना पाठक को एक ही वर्ग के हेतु नही होता है | श्रोता पाठक के भेद से भी भाषा का स्वरुप बदलता है | ये भाषा वज्ञानिक तथ्य है जो प्रचार-प्रसार एवं विकास होने से भाषा में अनेक रूपता का विकास भी होता है |
                   मैथिली साहित्य के वर्तनी में भिन्नता के प्रसंग से ये जानने की जरुरत है कि जो कोई भाषा सुना जाता है, देखा नहीं जाता है | भाषा के श्रव्य रूप को दृश्य रूप में परिवर्तित करने केलिए किसी नही भाषा के स्वर का प्रतिमानीकरण वर्ण या अक्षर से होता है | मैथिली जिस देवनागरी के वर्णमाला में लिखा जाता है, उसका विकास संस्कृत लिखने केलिए हुआ था | मैथिली या एनी आधुनिक भाषा में उदभित नये स्वर केलिए इस में वर्ण नही है | अपितु एक ही वर्ण या प्रतिक से अनेक स्वर, या दो वर्ण एवं प्रतिक के योग से, किसी तरह कम किया जा रहा है |
                                साहित्य में प्रयुक्त शब्द की वर्तनी शिष्ट उच्चारण के अनुरूप होता है, परन्तु देखा जाता है के अनेक भाषाओँ में कई शब्द कए वर्तनी समकालीन धिष्ट उच्चारण के अनुरूप नही होकर पारंपरिक रूप से होता है | अंग्रेजी में ऐसा हजारों शब्द है जिसका उच्चारण आज बदल गया है किन्तु वह लिखा जाता है कुछ शताब्दी पूर्व के उच्चारण के अनुरूप जैसे : -
Knife, Neighbour, Dougher, Knowledge, Though, Psychology, Calf   आदि | संस्कृत में ब्रह्मा-ब्रह्म्मा, कर्म-कर्म्म, ब्राम्हण-ब्राह्मण ऐसा अनेक शब्द है जिसका वर्तनी एवं उच्चारण में भेद स्पष्ट परिलक्षित होता है |
                   मैथिली का नवजागरण युग में प्रथम या द्वितीय पंक्ति के जितने लेखक हुवे, वे चाहे संस्कृत के प्रकांड विद्वान नही तो उनका उत्तराधिकारी- संस्कृत के आग्रही थे | इसीलिए समसामयिकी विषय की ओर मोड़ लेते हुए मैथिली में तत्सम शब्द का विलोप हो गया | परिणामस्वरूप मैथिली का साहित्यिक स्वरुप लोक भाषा से अलग शिक्षित वर्ग का भाषा बना रह गया है | साहित्य में तत्सम शब्द के स्थान पर मैथिली के ठेठ शब्द को मिलाने का आग्रह सर्वत्र सुना हा रहा है |
                          सहजात कवि विलियम बर्ड्सवर्थ समाज के मध्यम एवं निम्न वर्ग के भाषा में काव्य रच कर महाकवि हो चुके हैं | उनके ही शब्द में His aim was to choose incidents and situtions from common life, and to relate and describe them throughout as far as possible, in a selection of language really used by men and at the same time to throw over them a certain colouring of imaginations whereby ordinary things should be presented to the mind in an usual aspect”.
                       ऊपर विवेचित मैथिलि-साहित्य का वर्तमान मानक स्वरुप, इसका अति संस्कृतनिष्ठता पर उठाए गए प्रश्न, लोक भाषा के शब्द का साहित्य में समावेश का आग्रह, एवं मिथिला के सीमांत क्षेत्र में पृक्त औपभाषिक स्वरुप के मानक में आत्मरूप दर्शन हेतु मैथिली के लेखक, अध्यापक एवं रूप से शुभेच्छुक विचारार्थ निम्न तथ्य उभर कर सामने आता है : -
1. सीमांत क्षेत्रीय साहित्यकार के मैथिली के औपभाषिक स्वर में निबंधित कृति के मैथिली साहित्य में स्थान देते हुए प्रकाशित किया जाना चाहिए |
2. मैथिली के सभी समारोह एवं मंच पर आंचलिक स्वरुप के गीत, भाषण आदि से प्रोत्साहित किया जन चाहिए ताकि सभी समुदाय के लोगों का भाषा अशुद्धि का संकोच दूर हो जाए |
3. सीमांत क्षेत्र में मैथिली के समारोह का आयोजन होना चाहिए एवं इस में स्थानीय साहित्यकार को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए |
4. औपभाषिक स्वरुप के साहित्य के सभी स्तर को पाठ्यक्रम में सामिल किया जाना चाहिए तथा परीक्षा में औपभाषिक स्वरुप पर पूछे जाने वाले प्रश्न हेतु अंक निर्धारण किया जाना चाहिए |
5. केन्द्रीय क्षेत्र के साहित्यकार अपन प्रतिभा एवं चमत्कार से मैथिली के समग्र रूप को समेट कर ऐसा साहित्य का सृजन करें जो सभी औपभाषिक स्वरुप के जनसमुदाय में आत्मयिता का बोध करने में सक्षम हो सके |
6. दरभंगा रेडियो स्टेशन से प्रसारित होने वाले मैथिली के कार्यक्रम में मैथिली के सभी आंचलिक स्वरुप के भाषा-भाषी का सन्निवेश करते हुए एक आदर्श कार्यक्रम चलाया जाना चाहिए |
7. काव्यानुशासन को मानते हुए, तदभव एवं ठेठ शब्द के प्रयोग को बढाया जाना चाहिए | वर्ण, विषय, काल, पात्र के अनुसार अधिकाधिक लोक भाषा के शब्द से साहित्य को सहज एवं अकृत्रिम बनाया जाना चाहिए |
8. मैथिली साहित्य में भाव एवं भाषा के नव प्रयोग के युग में वर्तनी पर अधिकाधिक प्रयोग नही किया जाना चाहिए | महाजनो येन गतः सः पन्थः को मानते हुए रामनाथ बाबु, डा० सुभद्र झा एवं मैथिली अकादमी का अनुसरण किया जाना चाहिए |


                         The End
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